श्री श्री १००८ श्री राजाराम जी महाराज के शिष्य श्री देवारामजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद श्री किशनारामजी महाराज को “श्री राजाराम जी महाराज आश्रम शिकारपुरा” के गादीपति से विभूषित किया गया। श्री किशनारामजी महाराज ने समाज को एक धागे में पिरोकर पूरे देश में दूर दूर फैले आंजणा समाज को एक मंच प्रदान कर गुरूजी की दी शिक्षाओं का प्रसार- प्रचार किया। श्री किशनाराम जी महाराज समाजसेवी, आयुर्वेदाचार्य, चमत्कारी बहुआयामी व्यक्तित्व, युग प्रवतर्क, निर्माण पुरुष के रूप में जाने जाते है।
आज इस पोस्ट में हम श्री किशनाराम जी के जीवन के बारे में विस्तार से जानेंगे।
राजस्थान के जोधपुर जिले की लूणी तहसील के गांव खेड़ा में रहने वाले वजाराम ओड़ बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के किसान थे। संतोषी जीव थे इसलिए प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रहना उन्हें आता था। वैसे तो उनके पास ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ था लेकिन कहते हैं कि सम्पूर्ण सुख किसी को प्राप्त नहीं होता है, वजाराम जी को संतान का दुःख था। ऐसा भी नहीं था कि उन्हें संतान हुई ही न हो लेकिन जो भी संतान हुई वह कुछ दिन या कुछ सप्ताह बाद ही ईश्वर ने वापस ले ली। कोई बच्चा जीवित नहीं रहा।
वजाराम और उनकी सद्गृहणी धर्मपत्नी चुन्नी देवी केवल इसी दुःख को ढोते हुए जीवन गुजार रहे थे। उन दिनों शिकारपुरा के परम तपस्वी संत श्री राजाराम जी महाराज की दयालुता एवं चमत्कारों की बहुत अधिक चर्चा थी। किसी अपने ने वजाराम को नेक सलाह दी – ‘राजाराम बापजी साक्षात् भगवान् के अवतार हैं। दुखियों के दुःखों को हरने वाले हैं। तुम अपना दुःख उन्हें जाकर कहो। कोई कारण नहीं कि तुम्हारा दुःख दूर न हो। लेकिन मन में पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ बापजी के श्रीचरणों में अपना निवेदन करना। भला होगा और जरूर होगा।’
वजाराम जी को संतान प्राप्ति की इच्छा थी और इसके लिए वह अनेक उपाय भी कर चुके थे मगर सफलता नहीं • मिली थी। उन्होंने अपनी धर्मपत्नी चुन्नी देवी से इस बारे में सलाह की दोनों की सहमति बनी कि राजाराम बापजी। के पास जाना चाहिए। और एक दिन वजाराम पूर्ण श्रद्धा-विश्वास- आस्था के साथ शिकारपुरा पहुंचे और परमपूज्य राजाराम जी महाराज के समक्ष उपस्थित हुए। राजाराम जी तो अंतर्यामी थे, त्रिकालदर्शी थे उन्होंने वजाराम के आने का कारण जान लिया लेकिन फिर भी कहा- ‘कुछ कहना चाहते हो, कुछ परेशानी है क्या?” वजाराम ने ‘बापजी’ के श्रीचरणों का स्पर्श कर संकोच के साथ अपनी परेशानी उन्हें बताई। वजाराम की बात सुनकर ‘बापजी’ थोड़ा गंभीर हुए फिर स्वाभाविक मुद्रा में आकर बोले- ‘जाओ दो श्रीफल (नारियल) लेकर आओ।’ वजाराम दौड़ते हुए गये और अविलम्ब दो श्रीफल ले आये। दोनों श्रीफल अपने हाथों में लेकर दिव्यात्मा राजाराम जी महाराज ने कहा- ‘इन दोनों में कोई अंतर लगता है तुम्हें।’
वजाराम ने दोनों श्रीफलों को गौर से देखा और कहा- ‘बापजी! इनमें एक बड़ा और दूसरा छोटा है।’ महाराजश्री ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘इनमें से बड़ा हमारा छोटा तुम्हारा बोलो मंजूर पहले तो बापजी की बात का अर्थ ही वजाराम की समझ में नहीं आया लेकिन जब राजाराम जी ने अपनी बात एक बार फिर दोहराई तो सारा मामला उनकी समझ में आ गया। ‘बापजी’ की बात का आशय था- ‘बड़ा बेटा हमारा और छोटा तुम्हारा होगा।’ ‘हमारे’ से भी उनका तात्पर्य आश्रम में रहकर प्रभु सेवा, गुरु सेवा और समाज सेवा करने वाला।
वजाराम ओड़ ने ‘बापजी’ को पक्का वचन दिया कि वह अपनी प्रथम संतान को आश्रम को समर्पित कर देंगे। वजाराम खुशी-खुशी खेड़ा लौट आए और हमेशा की तरह प्रभुनाम लेते हुए कृषि कार्य में जुट गये।
श्री किशनाराम जी महाराज का जन्म
जहां दृढ़ आस्था होती है, मन में सच्चा विश्वास होता है वहां इच्छापूर्ति भी होती है। यही वजाराम ओड़ के साथ भी हुआ। समय के साथ चुन्नी देवी ने गर्भधारण किया, उन्हें भी पूज्य राजाराम जी के वचन पर पूरा भरोसा था।
गर्भधारण के कुछ माह बाद चुन्नी देवी अपने पिता बाखर राम करड़ के पास रोहिचा कलां चली आईं। माता तीजा देवी अपनी बेटी का विशेष ध्यान रखती थीं क्योंकि उन्हें भी नाती को गोद में खिलाने की बड़ी इच्छा थी। सन् १६३० के चौमासे की एक पावन प्रातःकालीन बेला में बाखरजी की ढाणी में परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकम्पा और परमपूज्य राजाराम जी महाराज के सिद्ध वचन के कृपास्वरूप चुन्नीदेवी ने एक शिशु को जन्म दिया। कहते हैं कि पैदा होते ही इस दिव्य शिशु के होठों पर मनमोहक मुस्कान तैर रही थी। शिशु के नाना बाखर राम, नानी तीजा देवी, मामा रामाराम, समरता राम, पूनमाराम, पुरखाराम, वेंजाराम और मंगलाराम के साथ मौसी गौरी देवी व हरकू देवी खुशी से झूम उठे। गांव वालों ने शिशु पर आशीष की मानों बरसात ही कर दी। हर और प्रसन्नता का माहौल था। जब वजाराम को पुत्र प्राप्ति का संदेश मिला तो सबसे पहले उन्होंने परमात्मा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की और फिर मन ही मन में परमपूज्य में राजाराम जी महाराज के श्रीचरणों का ध्यान कर प्रणाम किया। बाद में ‘बापजी’ को पुत्र प्राप्ति की सूचना देने और धन्यवाद करने के लिए वजाराम शिकारपुरा आश्रम गये। महाराजश्री को दंडवत किया तो उन्होंने कहा- ‘अपना वचन याद रखना।’
‘जी, बापजी। बस आप अपना आशीर्वाद बनाये रखना जी।’ वजाराम ने कहा तो राजाराम जी महाराज मुस्कुरा भर दिये। उनकी मुस्कुराहट का अर्थ भला कौन समझ सकता था। संतों के संकेत समझ पाने की सामर्थ्य हर किसी में कहां होती है।
श्री किशनाराम जी महाराज का बाल्यावस्था
बाखर की ढाणी में जन्में दिव्य शिशु का नाम रखा गया किशना (कृष्णा)। किशना आम शिशुओं से अलग था। रोता तो था ही नहीं, हमेशा उसके होठों पर मनमोहनी मुस्कान तैरती रहती थी। कोई भी उसकी ओर देखता तो मुस्कान और गहरी हो जाती। मां चुन्नी देवी नित्यप्रति नियम से अपने लाडले किशना की नजर उतारती थीं और सुबह उठते ही उसके माथे पर काजल का टीका लगाना नहीं भूलती थीं। माता-पिता, नाना-नानी, मामा-मौसी का दुलारा किशना एक बार शिकारपुरा
जाकर राजाराम बापजी के श्रीचरणों का स्पर्श कर आया था। जिस समय माता चुन्नी देवी ने शिशु किशना को ‘बापजी’ के श्रीचरणों में रखा तो उसने (किशना) अपने नन्हें हाथ से ‘बापजी’ के पांव का अंगूठा पकड़ लिया। फिर दोनों के बीच आंखों ही आंखों में कुछ बात हुई और गुरु -शिष्य मुस्कुरा दिये। सम्भवतः इन दोनों पुण्यात्माओं के बीच पूर्वजन्म का कोई बड़ा प्यारा सा रिश्ता जरूर था और उनकी मुस्कराहट बता रही थी कि दोनों ने एक-दूसरे को पहचान
• लिया है। परमपूज्य राजाराम जी महाराज ने वजाराम से शिशु का लालन-पालन आश्रम की अमानत के तौर पर करने को कहा।
सबके प्यारे किशना का बचपन तो ननिहाल में बीतना था, सो उन्हें रोहिचा कलां पहुंचा दिया गया। ननिहाल में सभी अपने-पराये किशना को बेहद प्यार किया करते थे। कोई उसे जमीन पर उतरने ही नहीं देता था। सारा दिन किसी-किसी की गोद में या इस-उस के कंधे पर बैठकर इधर-उधर घूमते बीत जाता । किशना को रोना तो जैसे आता ही नहीं था, वह हमेशा मुस्कराता रहता और जब ऐसा नहीं कर रहा होता था तो मानो प्रभु के ध्यान में रहता।
किशना दूसरे बच्चों जैसा तो बिल्कुल नहीं था। जब दूसरे बच्चे खेल रहे होते तो वह उनसे दूर बैठा उन्हें खेलता देखकर ही खुश होता रहता। यही स्थिति उसकी उस समय होती जब दूसरे भोजन करते और वह उन्हें ऐसा करते देखता। ऐसा लगता था जैसे भगवान् ने उसे दूसरों को खुश होता देखकर खुश होने के लिए ही बनाया था। बचपन से ही उसके व्यक्तित्व में परोपकार का भाव प्रकट होने लगा था। पूत के पांव पालने में दीखने लगे थे। किशना ने पहले ‘घुटवन’ चलना सीखा और फिर डगमगाते कदमों से ‘पैयां-पैयां’। जिस दिन किशना बिना सहारे के अपने बल पर घर के आंगन में चला उस दिन नानी तीजा ने आसपास के घरों में मिठाई बांटी थी और घर में पकवान बनाया था। सारा घर खुश था।
अब किशना अपने मामाओं के साथ घर से बाहर जाने लगा। बाहर के वातावरण को किशना बड़ी उत्सुकता से देखता और परखता था। उस समय उसकी दृष्टि किसी बुजुर्ग विद्वान जैसी होती। अब वह बोल भी लेता ही था। इसलिए तरह-तरह के प्रश्न भी करने लगा था – बाल सुलभ प्रश्न लेकिन फिर भी अन्य बच्चों की तुलना में किशना बोलता भी कम था। ऐसा लगता था मानों कम बोलकर बचने वाली ऊर्जा का संचयन वह किसी बड़े काम को करने के लिए कर रहा हो।
किशना किलकारी मारकर एकदम खुलकर हंसता था, एकदम प्राकृतिक हंसी। उसकी हंसी से घर की निर्जीव दीवारें भी खिलखिलाती सी लगती थी। एक और बात जो शेष बच्चों से अलग किशना में थी, ये कि वह सोता कम था वह वास्तव में काफी कम सोया करता था लेकिन जब वह जाग रहा होता और शेष जन सो रहे होते तो वह किसी को भी तंग नहीं करता था। परिवार के लोग अक्सर उसके व्यवहार को देखकर बातें किया करते थे- ‘अपने किशना का बचपन अजीब है, वह बच्चा तो है लेकिन बाकी बच्चों से अलग। कभी-कभी तो लगता है इस बच्चे में, अपने किशना के दिल में कोई देवता विराजता है जो इसे अनोखा व्यवहार करने को प्रेरित करता है।”
ज्यादातर देखा यह जाता है कि ज्यादा लाड़-प्यार में बच्चे बिगड़ जाते हैं, जिद्दी हो जाते हैं लेकिन किशना के मामले में ऐसा बिलकुल भी नहीं था। उसे जितना ज्यादा प्यार मिला वह उतना ही ज्यादा विनम्र होता गया। उसे जितना ज्यादा दुलार मिला वह उतना ही ज्यादा आज्ञाकारी हो गया। उसका व्यवहार सब को अपनी ओर आकर्षित करता था। उसके बाल-व्यक्तित्व में चुंबकीय गुण विद्यमान था।
बालक किशना अपने मामाओं के साथ गाय चराने के लिए भी चला जाता था। नाम किशना हो और उसे गायों से प्यार न हो, यह हो नहीं सकता था। किशना को गायों से, बछड़ों से अगाध प्रेम था।
किशना ने गायों को कभी डंडे से नहीं मारा। यदि कोई दूसरा किसी गाय को डंडा मार देता था तो किशना गाय के चोट वाले स्थान को देर तक सहलाता रहता। ऐसा करते हुए उसकी आंखों में आंसू तक आ जाते थे। गायों के बारे में वह बड़े-बूढ़ों जैसी बात करता- ‘गाय को जब सब माता कहते हैं, माता मानते हैं फिर उसे मारने क्यों हैं? भला कोई अपनी मां को मारता है। मां को मारने वाला तो बड़ा पापी होता है। गायों के प्रति किशना के प्रेम को देखकर घर-गांव के लोग अचम्मित रहते थे।
एक बार की बात है एक बछड़े को चोट लग गई। उसकी चोट देखकर किशना का हृदय द्रवित हो गया। उसने बिना हिचक बछड़े के घाव को अपने हाथों से धीरे-धीरे साफ किया और उसमें दवा लगाई। ऐसा करते हुए बालक किशना की आंखें नम थीं। जब तक बछड़े की चोट एकदम ठीक नहीं हो गई तब तक बालक किशना ने उसका उपचार करना नहीं छोड़ा। जब किशना मात्र पांच-साढ़े पांच वर्ष का था तो उसकी मां चुन्नी देवी का निधन हो गया। उस दिन किशना अपनी मां को याद करके बहुत रोया था। रात में सोते समय भी वह सुबकता ही रहा था। बड़ी मुश्किल से नानी ने उसे सांत्वना दी थी। किशना ने अपने मामाओं के साथ पूरे तीन वर्ष तक गाय चराने का काम किया था। गाय चराते समय जब उसके हम उम्र तरह-तरह के खेल खेला करते थे तब किशना किसी पेड़ की छाया में बैठकर भगवान् का ध्यान किया करता । में
किशना की वाणी में बड़ा ‘सत्’ था। जो वह कहता हो जाता। यहां तक कि जब आकाश बादल का एक टुकड़ा भी नहीं होता था तब किशना बरसात होने की ‘भविष्यवाणी’ करता था। ऐसा एक नहीं अनेक बार नहीं हमेशा ही हुआ था किशना की भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई थी। सच तो यह है किशना की जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती का वास था, वह जो कुछ कह देता सत्य सिद्ध हो जाता। किशना कभी भी किसी को कोई अपशब्द कहता ही नहीं था। वह सब लोगों के बीच रहता था लेकिन उसके कारण किसी तरह का कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ था। बल्कि वह तो दूसरे बच्चों के विवाद सुलझाया करता था। वह कम उम्र में ही गांव भर में लोकप्रिय हो गया था।
ऐसा एक नहीं अनेक बार हुआ था जब किशना ने अपने परिजनों से कहा था ‘आज मुझे राजाराम बापजी मिले थे।’ या ‘आज राजाराम जी मुझसे कह रहे थे कि आश्रम आना जरूर।’
सच तो यह है कि बालक किशना के मस्तिष्क में आश्रम और हृदय में अवतारी महापुरुष राजाराम जी महाराज की छवि विराजती थी। कई बार तो परिजनों ने यह भी देखा कि किशना अकेला बैठा पता नहीं क्या-क्या बातें और पता नहीं किस से किया करता था। जब कोई उसके इस कार्य में बाधा पहुंचाता तो वह खिन्न हो उठता था। अपने किशना को सबसे ज्यादा लाड़ लड़ाने वाली नानी तीजा कहा करती थीं ‘यह बापजी (राजारामजी महाराज) से बातें करता है, इसे कोई टोका मत करो।
किशना के मन में कभी कोई लोभ लालच बचपन से ही नहीं था। वह तो अपनी चीज भी दूसरों को दे दिया करता था। खाने को कोई चीज मिलती तो उसे भी बह बांट दिया करता था। यह किशना का स्वाभाविक प्रभु प्रदत्त गुण था।
यू ही समय की धारा में बहते हुए सात वर्ष का समय निकल गया। किशना को परमपूज्य राजाराम जी महाराज स्वप्न में दर्शन देते तो कभी साक्षात् उसके समक्ष आ खड़े होते। अवतारी राजारामजी की लीला और उनके चमत्कारों को भला कौन समझ सकता था। सात वर्ष तक ननिहाल में सबका प्यार पाने और सबको प्यार बांटने के बाद किशना पिता के साथ सतलाना खेड़ा आ गया। अपने पैतृक गांव में वह खेत पर पिता के साथ जाने लगा।
श्री किशनाराम जी महाराज शिकारपुरा आश्रम पहुंचे
एक दिन खेत में काम करते हुए किशना को माथे में चोट लगी और वह बेहोश हो गया। पिता वजाराम बहुत अधिक परेशान हो उठे। किशना के बेहोश होते ही उनके तो होश ही उड़ गये। वजाराम को परमपूज्य राजाराम जी महाराज के वचन याद आये- ‘इसे आश्रम की अमानत समझकर पालना।’ आश्रम की अमानत का सीधा सा अर्थ था- किशना को कोई कष्ट नहीं होना चाहिए और उससे कोई काम नहीं लिया जाना चाहिए था।
किशना की बेहोशी के माध्यम से राजाराम जी महाराज ने वजाराम को याद दिलाया था कि किशना के आश्रम में स्थाई रूप से रहने का समय आ गया है। वजाराम को यह भी याद आया कि राजाराम जी ने कहा था- ‘अगर किशना को कुछ हो जाए तो तुरंत मेरे पास ले आना।’
वजाराम किशना को लेकर पैदल ही शिकारपुरा स्थित आश्रम पहुंचे और बदहवास से राजाराम जी के चरणों में गिर पड़े। उनकी आंखों में आंसू तैर रहे थे। उन्होंने सारी स्थिति ‘बापजी’ के सामने रखी तो राजाराम जी ने क्षुब्ध स्वर में कहा- ‘तुमसे कहा था, यह आश्रम की अमानत है और इससे कोई काम मत कराना लेकिन तुमने मेरी बात पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।’
वजाराम गिड़गिड़ाये- ‘गलती हो गई बापजी। मुझे माफ कर दो जी। गलती मैंने की है उसकी सजा किशना को तो नहीं मिलनी चाहिए। इसे ठीक कर दो बापजी।
सजा देनी है तो मुझे दे दो जी।’ परम पूज्य राजाराम जी ने वजाराम की आंखों में पश्चाताप के आंसू देखे तो उन्हें दया आ गई। उन्होंने बेहोश पड़े किशना के माथे पर दो-तीन बार प्यार से हाथ फेरा और बहुत ही मधुर स्वर में आदेश दिया- ‘उठ रे किशना खड़ा हो।’ …इथर उन्होंने ऐसा कहा और उधर चमत्कार हो गया। कई घंटों से बेहोश किशना ने आंखें खोल दी और उठ बैठा। किशना ने ‘बापजी’ के श्रीचरणों में मस्तक रख दिया तो उन्होंने उसे यशस्वी होने का मंगल आशीर्वाद दिया। वजाराम की स्थिति बड़ी विचित्र थी। कभी वह राजारामजी महाराज की और देखते और कभी अपने प्यारे किशना की ओर … और वे दोनों उनकी विचित्र स्थिति पर एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्करा रहे थे। राजाराम जी ने कहा- ‘वजाराम! तुमने वचन दिया था बड़ा नारियल मुझे सौंप दोगे। क्या तुम्हें वह वचन याद है।’ वजाराम ने कहा- ‘जी, बापजी।’
तो देर किस बात की?”
‘जैसा आप आदेश करें।’
‘एक काम कर दो चार दिन को इसे ले जा, सबसे मिला ला और फिर मेरी अमानत मुझे सौंप जाना।’ वजाराम ने महाराजश्री के आदेश का अक्षरशः पालन किया। किशना को सभी संबंधियों, नाते-रिश्तेदारों, गांव वालों सब से मिलवाया। किशना ने अपने छोटे भाई वरदाराम और बहन अंसी को खूब प्यार किया। गांव वाले किशना को विदा करने गांव की सीमा से बाहर तक आये और तब तक वहीं खड़े रहे जब तब कि उनका प्यारा किशना अपने पिता वजाराम के साथ आंखों से ओझल नहीं हो गया।
… और इस तरह किशना अपने परम लक्ष्य की ओर प्रथम पग उठाता हुआ परमपूज्य श्री राजाराम जी महाराज के श्रीचरणों की सेवा में शिकारपुरा स्थित आश्रम पहुंच गया।
जिसकी लौ आश्रम से लगी हो, आश्रम में उसका मन न लगने का तो प्रश्न ही नहीं था। किशना पहले ही दिन से आश्रम में रम गया।
किशना ने आश्रम की तमाम गतिविधियों को समझने के साथ उनमें विधिवत हिस्सा लेने का प्रयास भी शुरू कर दिया। वह स्वयं को इतना व्यस्त रखता कि घर-परिवार, मां-बाप, भाई-बहन, मामा-मामी, नाना-नानी किसी की याद उसके पास तक फटक नहीं पाती थी। हां, दिन भर की व्यस्तता के बाद जब वह रात्रि में सोने के लिए लेटता तो उसे अपनी नानी की याद जरूर आ जाती थी ।
किशना महीने में एक बार अपनी नानी से मिलने जरूर जाता। रोहिचा कला प्रवास के दौरान उसका ज्यादातर समय नानी के पास ही बीतता। वह अपनी प्यारी नानी को आश्रम की और उसमें भी विशेष रूप से परमपूज्य राजाराम जी महाराज व उनके परम शिष्य देवाराम जी महाराज से जुड़ी तमाम तरह की बातें बताता रहता। वह नानी को बताता कि किस तरह आश्रम में उसकी छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जरूरत का ध्यान रखा जाता है। किस तरह हर कोई उसे प्यार करता है। किस तरह उसकी जरा सी तकलीफ पर पूरे आश्रम वाले दुःखी हो जाते हैं।
सात साल तक अपने सीने से लगाये घूमने वाली नानी किशना की स्थिति से संतुष्ट थीं। यही कारण था कि उसे कभी अपने किशना को आश्रम भेजते हुए तकलीफ नहीं हुई।
श्री किशनाराम जी महाराज की शिक्षा
आश्रम में रघुवीर सिंह नाम के एक विद्वान व्यक्ति थे, जो बच्चों को शिक्षा भी देते थे और एक औषधालय भी चलाते थे। किशनाराम, शिवराम, केवलराम, भूपसिंह आदि साथ-साथ रघुवीर सिंह जी से शिक्षा पाते थे।
यह बात अलग है कि कुशाग्र बुद्धि किशनाराम Shri Kishnaram Ji Maharaj ने आश्रम आने से पूर्व ही अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया था। अपना नाम लिखना और छोटा-मोटा हिसाब करना उन्होंने सीख लिया था। चूंकि किशनाराम को काफी कुछ पहले से आता था इसलिए रघुवीर सिंह जी को उन्हें सिखाने-पढ़ाने में परेशानी नहीं होती थी। यूं तो उनके सभी छात्र योग्य एवं आज्ञाकारी थे लेकिन किशनाराम बाकी से अलग थे, ज्ञानार्जन का कोई अवसर न तो वह छोड़ना चाहते थे और न ही उन्होंने कभी छोड़ा था। रघुवीर सिंह जी किशनाराम की एक बात से बेहद प्रभावित थे जो अन्य बच्चों से अलग थी। पढ़ाई के निश्चित समय के अलावा भी जब किशनाराम को समय मिलता, वह अपने ‘शिक्षा गुरु’ के पास जा बैठते थे और तरह-तरह के प्रश्न करके उनका उत्तर प्राप्त कर अपने ज्ञान के भंडार को बढ़ाते थे, समृद्ध करते थे।
सत्य तो यही है कि किशनाराम की वास्तविक प्रारंभिक शिक्षा परमपूज्य प्रातः स्मरणीय अवतारी राजाराम जी महाराज एवं सिद्ध संत देवाराम जी महाराज की छत्रछाया में आश्रम में ही हुई थी। राजाराम जी महाराज ने शिक्षा को सर्वाधिक महत्व दिया था।
उन्होंने एक सपना देखा था कि सम्पूर्ण पटेल समाज विद्याधन से समृद्ध हो, सम्पन्न हो। अपने इसी स्वप्न की पूर्ति के लिए महाराजश्री सदैव प्रयासरत रहा करते थे। किशनाराम के रूप में शिक्षा-प्रसारक मिल गया था, ऐसा उन्हें लगता था। एक दिन उन्होंने इस बात को कहा भी था- ‘विद्या प्राप्त करना सबके लिए जरूरी है क्योंकि शिक्षित व्यक्ति धोखा नहीं खाता है और अपने समाज को आगे बढ़ाने का महत्वपूर्ण काम करता है जबकि इसके विपरीत अनपढ़ स्वयं तो जिन्दगी भर धोखे खाता ही रहता है, साथ ही समाज को भी कुछ नहीं दे पाता है। वह समाज तो अपने परिवार की ओर अपना भला करने में भी सक्षम नहीं होता है। अनपढ़ व्यक्ति बड़ा बेचारा होता है- एकदम से लाचार।’
राजाराम जी कहते गये- ‘आज की सबसे बड़ी जरूरत समाज को शिक्षित करने की है लेकिन इसके लिए स्वयं अशिक्षा मार भगाना होगा, शिक्षित होना होगा। लोगों को चाहिए कि वे शिक्षित होने के बाद घर न बैठें बल्कि अपने ज्ञान के दीपक से एक नहीं अनेक दीपक जलाएं। देखना- यदि ऐसा हुआ तो हमारे समाज में व्याप्त अशिक्षा का अंधेरा दूर हो जाएगा।’…फिर पास ही बैठे किशनाराम की ओर देखकर उन्होंने कहा- ‘मुझे किशना पर बड़ा भरोसा है और मुझे लगता है कि यह एक दिन देश-विदेश में पटेल समाज का नाम रोशन करेगा। मेरी आत्मा कहती है कि यही मेरे शिक्षित पटेल समाज के सपने को पूरा करेगा, उसका आधार बनाएगा।’ ऐसा कहते हुए महाराजश्री ने किशना के सिर पर प्यार से हाथ फेरा। किशना ने अपना मस्तक महाराजश्री के श्रीचरणों में रख दिया। हमेशा की तरह वह निकट ही विराजमान पूज्य देवाराम जी का आशीर्वाद लेना नहीं भूले।
जिस शाम की यह बात है, उस रात किशनाराम (Shri Kishnaram Ji Maharaj) सो नहीं पाये। उन्होंने तमाम रात शिक्षा-विस्तार की तरह-तरह की योजनाएं बनाने में बिता दी। जबकि उन्हें पता था कि अभी तो स्वयं भी उन्हें खूब पढ़ना है, ज्ञान अर्जित करना है।
श्री राजाराम जी महाराज का महाप्रयाण – एक आघात
इसी बीच बालक किशना के कोमल मन को एक बड़ा आघात लगा। उसे बहुत प्यार करने वाले, उससे बहुत ज्यादा उम्मीद रखने वाले परमपूज्य अवतारी : पुरुष राजारामजी महाराज का महाप्रयाण हो गया। अपनी जाति ही नहीं सम्पूर्ण समाज को आध्यात्मिकता, धार्मिकता, सामाजिकता का संदेश देकर राजाराम जी ने यह नश्वर संसार त्याग दिया। उस दिन किशना बहुत रोया था। उसकी आंख के आंसू सूखते ही नहीं थे।
रोते-रोते उसका गला रुंध गया था, आवाज बंद हो गई थी। उसे समझाता कौन?
सभी तो शोक निमग्न थे, सभी तो हतप्रभ थे। किसी को कुछ सूझता ही नहीं था।
किशना सबसे अलग एक कोने में जा बैठा और शून्य में ताकने लगा। वह नन्हा बालक अपने आप से वादा कर रहा था- ‘मैं बापजी के सपने को पूरा करूंगा, चाहे मुझे इसके लिए कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े, चाहे मुझे समाज से कितना भी क्यों न टकराना पड़े। मैं बापजी के सपने को पूरा करूंगा।’ अचानक वह दृढ़ संकल्प के साथ उठ खड़ा हुआ और आकाश की ओर देखकर बोला- ‘बापजी, मुझे हिम्मत देना। मुझे रास्ता दिखाना।’ फिर वह आश्रम के नये महंत और अपने भावी गुरु परम श्रद्धेय देवाराम जी महाराज के पास आकर बैठ गया। देवाराम जी किशना की मनः स्थिति से भली प्रकार परिचित थे। उन्होंने किशना (Shri Kishnaram Ji Maharaj) के सिर पर प्यार से हाथ फेरा तो उसके मन को शांति व संकल्प को दृढ़ता मिली।
आश्रम से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद किशनाराम को विद्यार्जन के लिए लूणी स्थित विद्यालय में भर्ती करा दिया गया। अपने आश्रम के सहपाठियों के साथ वह लूणी जाने लगे। विद्या प्राप्ति के लिए समर्पित किशनाराम शीघ्र ही प्रधानाचार्य तेजराम जी के प्रिय बन गये। पढ़ने में वह बहुत तेज थे। किसी भी बात को सुनकर हमेशा के लिए याद रख लेने का गुण ईश्वर ने उन्हें दिया था। अपने सहपाठियों से उन्होंने सदैव स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की, जिसका लाभ निश्चित रूप से दोनों ही पक्षों को मिला।
एक बार किशनाराम के अंक एक परीक्षा में थोड़े कम आये। इस पर हेडमास्टर तेजराम जी ने उन्हें अपने पास बिठाकर कहा- ‘क्या कमी है भाई? दो बात हैं या तो हमारे पढ़ाने में कमी है या तुम्हारे पढ़ने में कमी है। ‘बापजी’ को तुमसे बहुत जयादा उम्मीद है, तुम्हें तो उनका सपना पूरा करना है।’
किशनाराम ने उनकी बात ध्यान से सुनी और कहा- ‘आपके पढ़ाने में कमी होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है, मेरे ही समझने में गलती हुई होगी। पढ़ते समय मेरा ही मन भटका होगा। यह आखिरी बार हुआ है- आगे से कोई कमी नहीं रहेगी।’ किशनाराम के स्वर में आत्मविश्वास की ऐसी झलक थी कि तेजराम जी उनकी प्रशंसा करते हुए
उन्हें गले से लगाने से स्वयं को रोक नहीं पाए- ‘तू सचमुच समाज का नाम रोशन करेगा।’ यह शिक्षा गुरु का आशीर्वाद था जिसे आगे चलकर फलीभूत होना ही था और यही हुआ भी।
श्री किशनाराम जी महाराज की बोर्डिंग शिक्षा
आश्रम और लूणी के विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के बाद किशनाराम को जाट बोर्डिंग (हॉस्टल) जोधपुर भेज दिया गया। वहां से रोजाना वह जोधपुर के ही महेश स्कूल पढ़ने आते थे। उन्हें स्कूल में एकदम दाखिला नहीं मिला था लेकिन इस बात से शिक्षा के प्रति उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी। बिना दाखिला लिये ही वह स्कूल जाते रहे।
हॉस्टल में रहने वाले जाटों के लड़के बहुत शरारती थे। उनका मन पढ़ने में लगता ही नहीं था, उन्हें तो रोज नई-नई शरारतें करना अच्छा लगता था। उसी में जाट लड़कों को आनंद आता था। शरारत और किशनाराम का परस्पर कोई संबंध था ही नहीं। शरारत उनके स्वभाव में शामिल ही नहीं थी, यह उनके स्वभाव के एकदम विपरीत परिस्थिति थी। वह शरारत करने जोधपुर नहीं आये थे। उन्हें तो पढ़ना था,
समाज का नाम रोशन करना था। किशनाराम ने विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को ढाल लिया और उनकी पढ़ाई सुचारू रूप से चलने लगी। उनकी लगन और मेहनत ने रंग दिखाया और उन्हें उनकी योग्यता के बल पर सीधा आठवीं कक्षा में प्रवेश दे दिया गया। पूरे छह माह किशनाराम बिना दाखिले के ही स्कूल जाते रहे थे।
अपनी पढ़ाई के साथ-साथ किशनाराम ने अपनी जाति के युवकों को संगठित करना व उनमें स्वजाति उत्थान के प्रति चेतना जागृत करने का काम भी शुरु कर दिया था। उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकर्षण था कि उनका विरोधी तक उनकी पूरी में बात सुनने को विवश हो जाता था। पटेल युवक उनकी बात सुनते और समझते। एक दिन ऐसे ही पटेल युवकों के बीच बैठे किशनाराम कह रहे थे- ‘हमें अपनी जाति को ऊंचा उठाना होगा तभी हम ऊंचे उठ पाएंगे और ऊंचे कहलाएंगे। जिस तरह का जीवन आज हमारे समाज के लोग जी रहे हैं, वह भी कोई जीवन है। गरीबी, अशिक्षा, भ्रांतियों, अंधविश्वास के अंधेरे ने हमारे समाज का भविष्य ढक रखा है। हम सबको मिलकर इस अंधेरे को हटाना है। आज हमारी अपनी कोई पहचान तक नहीं है। हमें अपनी पहचान बनानी होगी, तुम लोगों का पता नहीं लेकिन मुझे तो लगता है कि हम ऐसा कर सकते हैं।’
एक युवक ने पूछ लिया- ‘इसके लिए हमें क्या करना होगा?? किशनाराम ने उत्तर दिया- ‘सबसे पहले तो हमें अपने अंदर आगे बढ़ने की,
ऊंचा उठने की, अपनी एक अलग पहचान बनाने की इच्छा जगानी होगी और यकीन मानना जब तुम्हारे दिल में यह इच्छा वास्तव में जागृत हो जाएगी तो सबकुछ अपने आप होता चला जाएगा। परमपूज्य राजाराम जी महाराज ने सोते हुए पटेल समाज को जगाने के लिए जो अलख जगाई है हमें तो उसका अनुसरण करना है। ईश्वर की असीम कृपा और बापजी के आशीर्वाद से हमारा संकल्प जरूर पूरा होगा।
इस तरह की बैठकें Shri Kishnaram Ji Maharaj अक्सर किया करते थे। उनके मन में समाज को शिक्षित बनाने और पटेलों की एक गौरवशाली पहचान बनाने की भावना का पौधारोपण हो चुका था।
किशनाराम ने महेश स्कूल जोधपुर से दसवीं की परीक्षा बहुत अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण की। पूज्य देवाराम जी महाराज ने उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिया। दसवीं करने के बाद किशनाराम ने हॉस्टल छोड़ दिया और एक मकान किराये पर ले लिया। मकान मालिक जोधपुर से बाहर रहता था इसलिए पूरे मकान की जिम्मेदारी उसने किशनाराम को सौंप दी थी। जिम्मेदारी निभाने में किशनाराम का कोई सानी नहीं था। उन्हें जो भी काम सौंपा जाता उसे हमेशा पूरे मन से किया करते थे। लापरवाही उन्हें बिलकुल पसंद नहीं थी। जब पढ़ते थे तब भी वह कहा करते थे- ‘लापरवाही इंसान की सबसे बड़ी दुश्मन होती है। लापरवाह मनुष्य जीवन में खोने के अलावा कुछ और करता नहीं है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि लापरवाह इंसान विश्वास खो देता है, लोग उस पर विश्वास करना छोड़ देते हैं। …..और जिस व्यक्ति पर से लोगों का विश्वास उठ जाए वह तो दुनिया का सबसे अभागा इंसान होता है। इसलिए यदि अभागा नहीं बनना है, विश्वास नहीं खोना है तो लापरवाही को अपने पास फटकने मत देना।’
उनके सहपाठी बड़ी-बड़ी बातें सुनकर अचम्भित होते रहते थे। वे समझ नहीं पाते थे कि Shri Kishnaram Ji Maharaj इतनी ज्ञान की बातें आखिर लाता कहां से है। ज्यादातर सहपाठी उनके सच्चे प्रशंसक थे।
किराये का मकान लिया और श्री महाराज कुमार कॉलेज में प्रवेश भी ले लिया। ‘दरबार स्कूल’ के नाम से विख्यात इस कॉलेज में एक साधारण किसान के ग्रामीण बेटे का दाखिला होना कोई साधारण बात तो निश्चित रूप से नहीं थी। ….लेकिन धुन के धनी किशनाराम साधारण थे ही कहां, उनमें तो असाधारण प्रतिभा कूट-कूट कर भरी थी।
श्री किशनाराम जी महाराज समाज सेवा में
‘दरबार स्कूल’ में प्रवेश के कुछ वर्षों बाद ही Shri Kishnaram Ji Maharaj समाजसेवा के क्षेत्र में उतर पड़े। यह कोई संयोग नहीं था, समाजसेवा उनकी प्रवृत्ति का अभिन्न अंग था। परमपूज्य राजाराम जी महाराज के परमपावन सान्निध्य और श्रद्वेय देवाराम जी महाराज की शिक्षा की घुट्टी में उन्हें जो ‘समाजसेवा तत्व’ मिला था वह ‘दरबार स्कूल’ में जाकर प्रस्फुटित होने लगा था। समाज सेवा उनका संकल्प था।
अब उन्हें पढ़ाई के साथ-साथ अन्य अनेक काम करने होते थे। किशनाराम ने अपने आप को पटेल समाज के लिए पूरी तरह से समर्पित करने का संकल्प ले लिया था। लोग तरह-तरह के कामों के लिए उनके पास स्वयं आते ही थे, साथ ही किशनाराम ऐसे लोगों को खुद भी तलाशते थे जिन्हें मदद की जरूरत हो। दूसरों की सेवा में उन्हें आनंद आता था। इस बारे में वह कहा करते थे
‘अपने लिए तो सब करते ही हैं, दूसरों के लिए कुछ करना चाहिए। अपना घर तो सब बनाते ही हैं, दूसरों के लिए छत बनाओ मजा तो तब है। अपने दुःख में तो सब दुःखी होते ही हैं दूसरों के दुःख में दुःखी होकर उनके दुःख को दूर करने की कोशिश करो, बात तो तब है। अपना पेट तो सब भरते ही हैं, किसी भूखे को पेटभर भोजन कराओ, बात तो तभी है। अपने जीवन से अपने-पराये का भेद मिटा दो। अपना सुख बांटो, दूसरों का दुःख बांटो- जीवन जीने का आनंद आ जाएगा। किसी जरूरतमंद की जरूरत पूरी करने के बाद तुम्हें जो आत्मसंतुष्टि मिलेगी, वह सदियों से प्यासे व्यक्ति को जल पाकर भी शायद न मिले। …..लेकिन यह सब करना होगा
मन से, सच्चे हृदय से । सच्चे मन से काम करने वाले को परमात्मा और गुरु की अपार कृपा मिलती है। दोनोंइस तरह की बातें जब Shri Kishnaram Ji Maharaj करते तो ऐसा लगता ही नहीं था कि कोई विद्यार्थी बात कर रहा है अपितु ऐसा लगता था जैसे कोई ज्ञानी संत प्रवचन कर रहा हो। उनकी वाणी बड़ी धीर-गंभीर होती थी। वैसे भी उनका जोर गंभीरता पर पूरा रहता था। वह अपने सहपाठियों से कहा करते थे- ‘हर काम को गंभीरता से लेना चाहिए। गंभीरता से किया हुआ काम ही पूरा होता है। गंभीर बात करने-कहने वाले को समाज अच्छी दृष्टि से देखता है और जो गंभीर नहीं होते हैं लोग उन्हें पसंद नहीं करते हैं तथा उनसे दूरी बनाकर रखना चाहते हैं। ….लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं हैं कि हर समय गंभीरता का नकाब पहनकर घूमा जाए। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि हर काम को, हर बात को गंभीरता से लेना चाहिए यदि हम ऐसा कर पाये तो कोई कारण नहीं कि हम हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त न कर सकें। गंभीर व्यक्ति के कदम सफलता अवश्य चूमती है। इसलिए गंभीर बनो – सफल बनो।’
जिस व्यक्ति के हृदय में समाजसेवा का सागर हिलोरे ले रहा हो, वह हर किसी की मदद को तो तैयार रहेगा ही यही किशनाराम के साथ होता था। समाजसेवा के चक्कर में उनकी पढ़ाई प्रभावित होती थी। पढ़ने का समय मिलता ही नहीं था लेकिन चूंकि वह किशनाराम थे, विलक्षण युवक उन्होंने समाजसेवा और शिक्षा के बीच तालमेल बिठा लिया था लेकिन स्वाभाविक रूप से श्रम बढ़ गया था तथा नींद कम हो गई थी।
अब तो यह रोज का नियम बन गया था कि किसी के मुकदमे के चक्कर में अदालत जाते और कभी किसी मरीज का उपचार कराने के लिए अस्पताल के चक्कर लगाते। किसी का खाता खुलवाने के लिए बैंक जाते या किसी की चिट्ठी-पत्री के लिए डाकखाने पहुंचते। किसी के घर के झगड़े निपटाने उनके घर पहुंच जाते या किसी सार्वजनिक विवाद को समाप्त कराने के लिए पंचायत में पंचों से बहस करते। लेकिन इस सबके बीच Shri Kishnaram Ji Maharaj पढ़ाई भी करते। अनेक बार तो ऐसा होता था कि बचपन से साथ रहने वाले उनके सहपाठी शिवराम ऊंची आवाज में पुस्तक पढ़ते और किशनाराम उसे सुनकर ही याद कर लेते। कुशाग्र बुद्धि वाले किशनाराम के लिए यह बहुत आसान था। कई परीक्षाएं तो उन्होंने इसी तरह पढ़कर उत्तीर्ण की थीं। उनका यह गुण उनके सहपाठियों को ही नहीं अध्यापकों को भी प्रभावित करता था।
आश्रम का कुशल संचालन कर रहे पूज्य देवाराम जी को किशनाराम पर पूरा भरोसा था। उनका मानना था ‘जो समस्या किसी से हल न हो रही हो, उसे किशनाराम सुलझा देगा।’ इसी विश्वास के चलते वे दीन-दुखियों को जोधपुर Shri Kishnaram Ji Maharaj के पास भेज दिया करते थे। जोधपुर पहुंचने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और किशनाराम की पढ़ाई प्रभावित हो रही थी लेकिन उन्होंने अपने परिश्रम और योग्यता के बल पर शिक्षा व समाजसेवा में अद्भुत समन्वय स्थापित कर दिखाया। उन्होंने बहुत अच्छे अंकों से स्नातक (बीए) डिग्री हासिल कर ली। बहुत सीमित साधनों व कम खर्च में किशनाराम ने अपनी पढ़ाई पूरी की थी
इस बात के लिए पूज्य देवाराम जी उनकी प्रशंसा किया करते थे- ‘अपना किशना बहुत ही अच्छा बच्चा है। वह परिस्थिति को समझता है। उसकी जरूरतें बहुत कम हैं। सीमित साधनों में वह बड़े से काम करने की क्षमता रखता है। यह किशना का ही कमाल है जो इतने काम करते हुए, इतने कम खर्च में इतना ज्यादा पढ़ लिया और कोई ऐसा कर ही नहीं सकता था।’
देवाराम जी की इस तरह कही हुई बातें जब कोई किशनाराम को बताता तो वह बड़ी विनम्रता से कहते- ‘सब परमात्मा की कृपा और महाराजश्री के आशीर्वाद का परिणाम है, वरना मैं तो कुछ करने योग्य हूं ही नहीं, मुझमें तो कोई योग्यता है ही नहीं।’
यह थी किशनाराम की विनम्रता और अपने गुरुदेव के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा। उन्होंने कभी घमंड किया ही नहीं। घमंड को, अहंकार को, दंभ को उन्होंने कभी अपने पास फटकने ही नहीं दिया जबकि अहंकार करने के लिए उनके पास हजार कारण थे। मगर चूंकि वह ठहरे किशनाराम इसलिए घमंड उनके पास तक पहुंच ही नहीं पाया।
उन्होंने स्वयं तो कभी अभिमान किया ही नहीं दूसरों को भी इस ‘रोग’ से दूर रहने की सलाह दी। किशनाराम अहंकार को एक रोग ही कहा करते थे, जिससे कोई भी ग्रस्त हो सकता है। वह कहते- ‘अहंकार एक ऐसी बीमारी है, एक ऐसा रोग है। जो किसी को भी हो सकता है। इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति समाज तो समाज अपने लायक भी नहीं रहता है। घमंडी का सिर एक दिन नीचा होता ही है, ऐसा हमारे बड़े-बुजुर्ग कहते आये हैं और फिर नीचा होना कोई अच्छी बात तो है नहीं। सिर उठाकर जीना है और ऐसा बनना है जिसपर अपने गर्व कर सकें तो घमंड से दूर रहना होगा।’ इस तरह की बातें करके किशनाराम अपने समाज को शिक्षित करने का सार्थक प्रयास करते रहते थे।
- श्री किशनाराम जी ने आयुर्वेद की पढाई की ताकि समाज के गरीब लोगो का इलाज किया जा सके, महंगे इलाज करना गरीब के लिए भरी बोझ होता था।
- समाज के उथान के लिए किशनाराम जी महाराज ने १९७१ पाली विधानसभा से चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए परन्तु इनके लोकप्रियता में अभूतपूर्व वर्द्धि हुई।
- श्री किशनाराम जी महाराज को युगप्रवर्तक कहा जाता है क्योकि इन्होने पटेल समाज को जीने का ढंग सिखाया, आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया सदियों से रही अनपढ़ जाती को शिक्षित कर नई बुलंदियों पर पहुंचाया।
- संत किशनाराम जी ने ही बिखरी हुई पटेल समाज को एक धागे में पिरोया तथा गुजरात के पटेल समाज को अपने अथक प्रयास से शिकारपुरा आश्रम से जोड़ा।
त्यागा नश्वर संस्कार
महान् समाज सुधारक, कर्मयोगी, वीतरागी, तपोनिष्ठ, जातिउद्वारक, सर्वप्रिय, सर्वहितकारी, राष्ट्रवादी संत किशनाराम जी महाराज ने ६ जनवरी २००७ को सांय सवा सात बजे इस नश्वर संसार को त्यागकर वैकुण्ठ की ओर प्रस्थान किया। उनके भक्तों व शिष्यों में ही नहीं सम्पूर्ण पटेल समाज में शोक की लहर दौड़ गई। उनके ब्रह्मलीन होने का समाचार जंगल में आग की तरह सम्पूर्ण राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र में दौड़ गया। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए शिकारपुरा की ओर चल पड़े। देखते ही देखते आश्रम में अपार जनसमूह एकत्रित हो गया। सभी किशनाराम जी महाराज के गुणधर्मों की चर्चा कर रहे थे।
८ जनवरी २००७ को किशनाराम जी के पार्थिव देह को समाधिस्थ किया गया। अपार जनसमूह ने अपने प्रिय संत की जय-जयकार से आकाश गुंजा दिया। समाधि दिवस से तीसरे दिन ‘शंभू रोट’ का कार्यक्रम रखा गया।
इस में समाधिपूजन के साथ आमंत्रित संतों के लिए प्रसादी का आयोजन किया गया। धार्मिक मान्यता के ● अनुसार ‘शंभू रोट’ के दिन से मंदिर में एवं समाधि स्थल पर पूजा पाठ की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। देव पूजन का कार्यक्रम आरंभ होने के बाद से २७ जनवरी तक भागवत पाठ का आयोजन किया गया। ऐसी मान्यता है कि आत्मा अमर होती है और अमर आत्मा का निवास कैलाश पर्वत भोलेनाथ की भूमि पर है इसलिए शंभू रोट के बाद भागवत कथा एवं देवपूजा का कार्यक्रम आयोजित होता है।
शंभू रोट के छह दिन बाद नमिया के दिन ( नवें दिन ) आश्रम के निकट पवित्र तालाब पर पुण्यात्मा को पुष्पांजलि अर्पित की गई तथा यज्ञशाला में विष्णु यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें दस हजार आहुतियां दी गई। परम्परा के अनुसार उस दिन छोटे-छोटे बालकों को प्रसादी के लिए आमंत्रित किया गया। जिसमें आस-पास के स्कूलों के छात्र व अन्य बालकों की संख्या पांच हजार से भी जयादा थी।
उसी दिन ब्रह्मलीन पूज्य किशनाराम जी के उत्तराधिकारी दयाराम जी महाराज ने ३५ सदस्यों के साथ हरिद्वार को प्रस्थान किया। उधर अपने परम प्रिय संत को श्रद्धांजलि देने आने वालों का आश्रम में तांता लगा हुआ था जिनमें राजघरानों के लोग, राजनेता, किसान, शिक्षक, छात्र, मजदूर आदि प्रत्येक वर्ग के लोग शामिल थे। शिकारपुरा में मेले जैसा दृश्य उपस्थित था।
२२ जनवरी २००७ को सत्रहवीं के भंडारे का आयोजन रखा गया था। २१ जनवरी को रात्रि जागरण का भव्य आयोजन किया गया जिसमें राजस्थान के प्रसिद्ध गायकों एवं भजन मंडलियों ने भक्ति भाव का अलौकिक समा बांधा। २२ जनवरी को राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके मंत्रिमंडल के अनेक मंत्री श्री राजेश्वर घाम में पधारे और समाधिस्थल पर पहुंचकर ब्रह्ममलीन किशनाराम जी महाराज को श्रद्धांजलि अर्पित की।
महामहिम उपराष्ट्रपति एवं पूज्य किशनाराम जी के अभिन्न मित्र श्री भैरोसिंह शेखावत भी आश्रम में पधारे और जीवनपर्यन्त जनकल्याण के लिए प्रयासरत रहने वाले परम तपस्वी वीतरागी किशनाराम जी की समाधि पर पुष्प चक्र अर्पित किया। महामहिम उपराष्ट्रपति ने अपने प्रिय मित्र को याद किया और कहा- ‘आज किशनाराम जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा किये गये प्रेरणादायक कार्य सदियों तक उन लोगों का मार्गदर्शन करते रहेंगे जो वास्तव में समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं।’ गुजरात के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शिकारपुरा आश्रम पहुंचकर समाधि स्थल पर पुष्पांजलि अर्पित की और कहा- ‘आज मंहत श्री किशनाराम जी महाराज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी आत्मा अमर है और वह अमर आत्मा नई पीढ़ी को प्रेरणा एवं शक्ति देती रहेगी।
हमारे देश में संतों की कमी नहीं है लेकिन किशनाराम जी महाराज ने अपना सम्पूर्ण जीवन दरिद्र नारायण की सेवा-विशेष रूप से बालिका शिक्षा, मानव सेवा तथा राजस्थान – गुजरात तक के अपने समाज के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। उनकी कमी समाज में हमेशा महसूस की जाएगी।’
किशनाराम जी महाराज ने बहुत पहले ही अपने प्रिय शिष्य दयाराम को अपना उत्तराधिकारी मान लिया था। उन्होंने अपने इस शिष्य को इस तरह तैयार किया था। कि उनके बाद आश्रम की व्यवस्था को सुचारू रूप से चला सके, समाज को एकता के सूत्र में पिरोये रख सके, कुरीतियों से लड़ सके और ज्ञान का प्रकाश उन लोगों तक पहुंचा सके जो इस युग में भी अंधकार में भटक रहे हैं।
२२ जनवरी २००७ को प्रातः ११:११ बजे ब्रह्मलीन संत श्री परम पूज्य किशनाराम जी महाराज के परम प्रिय शिष्य दयाराम जी महाराज को किशनाराम जी के गुरुभाई वयोवृद्ध संत श्री भोलाराम जी महाराज ने आश्रम की ओर से चादर ओढ़ाकर मंहत की उपाधि से विभूषित किया। … और इस तरह किशनाराम जी महाराज का एक और सपना पूरा हुआ, उनके प्रिय शिष्य को आश्रम की बागडोर सौंप दी गई थी।
श्री किशनाराम जी महाराज के द्वारा कराये गए कार्य
- वर्ष १९६२ में जोधपुर शहर में १६ बीघा जमींन खरीदी गयी जो किशनाराम जी के दूरगामी सोच का परिणाम है की आज यहाँ संत श्री राजाराम शिक्षण संस्थान सिर उठाये खड़ा है जहा से आज तक असख्य बच्चे शिक्षा प्राप्त कर अपना भविष्य बना चुके है।
- जोधपुर शहर में ही सेंट पेट्रिक्स स्कूल के पास २००*३०० फूट का एक प्लाट ख़रीदा जहा पर श्री राजाराम सेवा संस्थान का भव्य भवन बनाया, जहाँ पर गरीब अपने किसी भी काम से जोधपुर आते है तब रात्रि आराम के लिए आसानी से रुक सकते है।
- एक समय में देवाराम जी महाराज और किशनाराम जी महाराज ने लूणी में अपने नाम से एक हॉस्टल चलाया था जिसमें पटेल समाज के बच्चों को लाकर रखा और उनकी पढ़ाई में उनकी सहायता की।
- गुजरात के धराद में हॉस्टल, बीसा में हॉस्टल बनवाया तो पालनपुर में श्री राजाराम गुरुकुल और छात्रावास स्थापित किया। धनेरा और गांधीनगर में छात्रावास बनवाये और अम्बाजी में अतिथि गृह (गेस्ट हाउस) का निर्माण कराया। सभी छात्रावासों तथा अतिथि गृह आज न केवल पटेलों बल्कि अन्य समाज के लोगों के भी काम आ रहे हैं।
- अखिल भारतीय आंजणा समाज के संस्थापक किशनाराम जी महाराज ने संस्था का मुख्यालय माउंट आबू में स्थापित किया। यह मुख्यालय कोई बैठकें या आराम करने का स्थान नहीं है- दिलवाड़ा मंदिर के पीछे स्थित २० बीघा क्षेत्र में बने परिसर में छात्रावास भी है और विश्राम गृह भी
- किशनाराम जी महाराज पैसे का सदुपयोग करते हुए जमीनें खरीदते रहते थे ताकि उनपर छात्रावास व विद्यालय स्थापित किये जा सकें। जिस समय किशनाराम जी ने आश्रम की व्यवस्था में हाथ बंटाना शुरु किया था उस समय आश्रम के पास १३ बीघा जमीन थी। उस महान कर्मयोगी ने आश्रम के लिए ६३ बीघा जमीन खरीदी जो आश्रम के प्रति उनके समर्पण का सबसे बड़ा प्रमाण है।
- इनके आलावा पटेल ग्राम सेवा संस्थान पटेल न्याती भवन, पांचवी रोड, जोधपुर में बनवाया।
- संत श्री किशनाराम जी महाराज ने संत श्री राजारामजी मानव सेवा अस्पताल, कल्यानपुर बाड़मेर बनवाया।
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