नाम | श्री राजाराम जी [ राजुराम जी ] |
जन्म | चैत्र शुल्क 9 नवमी संवत 1939 |
स्थान | शिकरपुरा, जोधपुर राजस्थान |
पिता श्री | श्री हरिंगराम जी |
माता श्री | मोती बाई जी |
भाई | श्री रुगनाथराम जी |
समाधि | श्रावण वद 14 सवंत 2000 |
मंदिर/ धाम | शिकरपुरा, जोधपुर राजस्थान |
श्री राजाराम जी जीवन परिचय
श्री राजाराम जी महाराज का जन्म जोधपुर के लुणी तहसील के गाँव शिकारपुरा मे चैत्र शुल्क 9 नवमी संवत 1939 को, में, कलबी वंश की सिह खांप गोत्र में गरीब किसान के घर हुआ था | जिस समय राजाराम जी की आयु लगभग 10 वर्ष थी तक राजाराम जी के पिता श्री हरिंगराम जी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद माता श्रीमती मोतीबाई का भी स्वर्गवास हो गया ।
माता-पिता के स्वर्गवास के बाद Shri RajaRam Ji maharaj के बड़े भाई श्री रगुनाथ रामजी नंगे सन्यासियों की जमात में चले गए और आप कुछ समय तक राजाराम जी अपने चाचा श्री थानारामजी व कुछ समय तक अपने मामा श्री मादारामजी भूरिया, गाँव धान्धिया के पास रहने लगे। बाद में शिकारपुरा के रबारियो की सांडिया, रोटी कपडे के बदले एक साल तक चारने का काम किया और गाँव की गायों को भी बिना लाठी लिए नंगे पाँव 2 साल तक राम-नाम रटते चराई।


Shri Rajaram Ji Jivan parichy
गाँव की गवाली छोड़ने के बाद श्री राजाराम जी ने गाँव के ठाकुर के घर 12 रोटियां प्रतिदिन व कपड़ो के बदले हाली का काम संभाल लिया। इस समय राजाराम जी के होंठ केवल राम-नाम रटने में ही हिला करते थे। श्री राजाराम जी अपने भोजन का आधा भाग नियमित रूप से कुत्तों को खिला देते थे जिसकी शिकायत ठाकुर से होने पर ठाकुर ने बारह रोटियों के स्थान पर छ: रोटिया ही देने लगे, फिर 6 मे से तीन रोटिया राजाराम जी कुत्तों को डालने लगे, तो फिर से शिकायत करने पर ठाकुर ने 3 में से 1 रोटी ही प्रतिदिन राजाराम जी के लिए भेजना शुरू कर दिया, लेकिन फिर भी भगवन अपने खाने का आधा हिस्सा कुत्तों को खिलाते थे।
इस प्रकार की ईश्वरीय भक्ति और दानशील स्वभाव से प्रभावित होकर देव-भारती नाम के एक महान पहुंचवान बाबाजी ने एक दिन श्री राजारामजी को अपना सच्चा सेवक समझकर अपने पास बुलाया और अपनी रिद्धि-सिद्धि श्री राजारामजी को देकर उन बाबाजी ने शिकरपुरा तालाब पर जीवित समाधी ले ली।


एक दिन ठाकुर ने विचार किया की राजाराम जी को एक दिन में एक रोटी प्रतिदिन कम ही हैं और किसी भी व्यक्ति को जीवित रहने के लिए ये काफी नहीं हैं अतः ठाकुर ने भोजन की मात्रा फिर से निश्चित करने के उद्धेश्य से उन्हें अपने घर पर भोजन के लिए बुलाया। Shri RajaRam Ji maharaj jiwan
शाम के समय श्री राजाराम जी इश्वर का नाम लेकर ठाकुर के यहाँ भोजन करने गए, श्री राजारामजी ने बातों ही बातों में 7.5 किलो आटे की रोटिया आरोग ली [ खा ली ] पर राजाराम जी की भूख मिटने का आभास ही नहीं हुआ, ठाकुर और उनकी की पत्नी यह देख अचभित हो गये, उसी दिन शाम से राजाराम जी महाराज ने अपने हाली का काम ठाकुर को सोंप कर तालाब पर जोगमाया के मंदिर में आकर राम-नाम रटने लगे।
इधर सारे शिकरपुरा गाँव के लोगो को चमत्कार का समाचार मिलने पर लोग राजाराम जी दर्शनों के लिए आने लग गया।
दुसरे दिन राजाराम जी ने द्वारिका का तीर्थ करने का विचार किया और दंडवत करते हुए द्वारिका रवाना हो गए | 5 दिनों में शिकारपुरा से पारलू पहुंचे और एक पीपल के पेड़ के नीचे हजारो नर-नारियो के बिच अपना आसन जमाया और उनके बिच से एकाएक इस प्रकार से गायब हुए की किसी को पता ही नहीं लगा।


श्री राजाराम जी महाराज जीवन परिचय
इसी जगह पर राजाराम जी ने भगवान की भक्ति करना शुरू कर दी ओर अखंड ध्यान लगाया जिस कारण भगवान इंद देव का सिहासन देवलोक मे डोलने लगा,तब भगवान इन्द्र देव ने राजाराम जी की तपस्या भंग करने के लिए पारियो को भेजा, राजाराम जी ध्यान मे इतने मग्न थे की पारियो के लाखो कोशिश के बाद भी उनकी तपस्या भंग नही हो पाई, तब अंत मे भगवान इन्द्र ने आपने सिहासन से Shri RajaRam Ji maharaj को देवलोक लाने का आदेश दिया तब राजाराम जी उस देवलोक मे गये ओर वहा सभी देवी देवताओ के दशन किए।
उसके बाद श्री राजाराम जी 10 माह की द्वारिका तीर्थ यात्रा करके शिकारपुरा में जोगमाया के मंदिर में प्रकट हुए और अद्भुत चमत्कारी बाते करने लगे, जिन पर विश्वास कर लोग उनकी पूजा करने लग गए, राजारामजी महाराज को लोग जब अधिक परेशान करने लग गये तो राजाराम जी ने 6 मास का मोन व्रत रख लिया, जब राजाराम जी ने शिवरात्री के दिन मोन खोला तक लगभग 80,000 उपस्थित लोगो को व्याखान दिया और अनेक चमत्कार बताये।
जिनका वर्णन श्री राजाराम जीवन चरित्र नामक पुस्तक में विस्तार से किया गया हैं
महादेवजी के उपासक होने के कारण राजाराम जी ने शिकारपुरा में तालाब पर एक महादेवजी का मंदिर बनवाया, जिसकी प्रतिष्ठा करते समय अनेक भाविको व साधुओ का सत्कार करने के लिए प्रसाद के स्वरूप नाना प्रकार के पकवान बनाये जिसमे 250 क्विंटल घी खर्च किया गया | उस मंदिर के बन जाने के बाद श्री राजाराम जी के बड़े भाई श्री रगुनाथाराम जी जमात से वापस पधार गये और दो साल साथ तपस्या करने के बाद श्री रगुनाथाराम जी ने समाधी ले ली | बड़े भाई की समाधी के बाद Shri RajaRam Ji maharaj ने अपने स्वयं के रहने के लिए एक बगेची बनाई, जिसको आजकल श्री राजारामजी आश्रम के नाम से पुकारा जाता हैं।


श्री राजाराम जी महाराज जीवन परिचय
श्री राजाराम जी महाराज के परचा
- कन्या कंवारी हाथ सूं, रूपवाई उणवार।
बोर पलट पीपल भई, अहो धन्य अवतार ।।
- गुण गाऊ गोविन्द रा, रात दिवस महाराज। माडाणी पूजे मन, भीड़ लगे इण भाज।।
इतसे कहत एक पल, उधड़ी छाप अनेक। पिछताया प्रताप, अरज करी उण वार में।।
- सुण जो भूप जोधाण धणियां, मानो बात हमारी।
खुशी होय थे जावो पोलो रमवा, जितो विलायत सारी।।
- पाणी में पत्थर तिरे, इण सु मोटो काह। सिध हुयो न हावसी, वाह जोगेसर वाह ।
त्रेता में रघुनाथ जब, सागर बांधी पाज। कलयुग में राजू करी, अमर बात नर आज।।
- पाणी मंत्र मठकियो, पड़िये बकरे पास।
अमृत छांट सू उठियो, मुवो कवरो खास।
- तन राजीव सुतो कीउ भाई, जा उठ दौड़ जगल रे माहि।
हरीयो हरीयो चरजे घास, खेलो जाय कुटुम्ब में साथ।।
- कियो अचम्भो मानवी, हरने जाड़े हाथ।
आज गुरू माने तारीया, मर जाता सब साथ।।


श्री राजारामजी महाराज ने संसारियों को अज्ञानता से ज्ञानता की ओर लाने के उद्देश्य से बच्चों को पढाने लिखाने पर जोर दिया। आपने जाति, धर्म, रंग आदि भेदों को दूर करने के लिए समय-समय पर अपने व्याख्यान दिये और बाल विवाह, कन्या विक्रय, मृत्युभोज जैसी समाज की बुराईयों का अंत करने का अथक प्रयत्न किया आपने लोगों को नशीली वस्तुओं के प्रयोग से कोसों दूर रहने का उपदेश दिया और शोषण विहीन होकर धर्मात्माओं की तरह समाज में रहने का पथ प्रदर्शन किया। आप एक अवतार थे, इस संसार में आये और समाज के कमजोर वर्ग की सेवा करते हुए श्रावण वद 14 संवत 2000 को इस संसार को त्याग करने के उद्देश्य से जीवित समाधि लेकर चले गये।


आपकी समाधि के बाद आपके प्रधान शिष्य श्रीदेवारामजी महाराज को आपके उपदेशों का प्रसार व प्रचार करने के उद्धेश्य से आपकी गद्धी पर बिठाया और महंत श्री की उपाधि से विभूषित किया गया।
संत श्री देवाराम जी महाराज की जीवनी
संत श्री किशनाराम जी महाराज की जीवनी


महंत श्री देवारामजी ने देश का भ्रमण करते हुए श्री राजारामजी महाराज के उपदेशों को संसारियों तक पहुंचाने का प्रयत्न करने में अपना जीवन लगा दिया है, जो आधुनिक साधुओं का आजकल के समाज के प्रति मूल कर्तव्य है। महंत श्री देवारामजी के प्रधान शिष्य श्री किशनारामजी आचार्य, शिष्य श्री भोलारामजी भी क्रमशः अपने विद्वतायुक्त व्याख्यानों और भावनायुक्त हरिभजूनों द्वारा श्री गुरूजी के अधूरे काम को पूरा करने में अपना जीबन लगाकर अथक प्रयत्न करते रहे हैं, जिसके लिए श्री राजारामजी महाराज संप्रदाय समाज आपका ऋणीरहेगा।


श्री देवारामजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद श्री किशनारामजी महाराज को गादीपति से विभूषित किया गया। श्री किशनारामजी महाराज ने समाज को एक धागे में पिरोकर पूरे देश में दूर दूर फैले आंजणा समाज को एक मंच प्रदान कर गुरूजी की दी शिक्षाओं का प्रसार- प्रचार किया एवं समाज सेवा करते करते 6 जनवरी 2007 को देवलोकगमन कर गये।वर्तमान में गुरू गादी की चोथी पीढी के रूप में श्री दयारामजी महाराज को महंत श्री की उपाधि से विभूषित किया गया।


नवगादीपति श्री दयारामजी महाराज युवा महंत है, लग्नशील है अतः आपके सानिध्य में समाज चहुंमुखी विकास के पथ पर आगे बढेगा एवं गुरूजी के दिये उपदेशों का प्रसार-प्रचार होगा।
संत श्री देवाराम जी महाराज की जीवनी
संत श्री किशनाराम जी महाराज की जीवनी
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जय श्री गुरूदेव जी की
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Karipya ye sab kiske aadhar par he
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जय श्री राजेश्वर भगवान
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जय गुरुदेव